abslm 16/09/2020
भारत में ग़रीबी और उससे जुड़े मुद्दे जैसे कभी अंत होने का नाम नहीं लेते उसी प्रकार आरक्षण भी ऐसा मुद्दा है जो कभी भी अपने को चर्चा से अलग नहीं कर पता समय-समय पर अल्लादिन के चिराग़ वाले जिन्न की तरह निकल कर बाहर आ ही जाता है, और अभी हाल के दिनो में आरक्षण को लेकर विभिन्न न्यायालयो के द्वारा कई निर्णय व टिप्पणिय की गई जिसमें हाल का एक निर्णय जिसमें आरक्षण और क्रीमि लीयर का मुद्दा उठाया गया और ये भी कहा गया की सरकार जाति के विभाजन से नीचे तक आरक्षण को पहुँचा सकती है,वही आर्थिक रूप से पिछड़े समाज के आरक्षण में कुछ फेर बदल की सुगबुगाहट भी हमें देखने सुनने को मिल रही है जिसका समाज में भारी विरोध आज भी जारी है।क्रिमीलीयर, आर्थिक आरक्षण इन सब मुद्दों से आरक्षण को लेकर समाज में एक भ्रम का निर्माण हुआ है और मन के भीतर प्रश्न भी खड़े किए है की आख़िर कर ये आरक्षण हैं क्यू ? इसका मंतव्य क्या है? संविधान निर्माताओ ने इसे क्यू रखा ? आदि- आदि ।इसी लिए यह ये जानना और समझना लाज़मी है की ये आरक्षण है क्या और आवश्यकता है क्यू । आरक्षण को लेकर बाबा साहब अम्बेडकर ने स्वयं कहा की “अराक्षण समाज में सभी को प्रतिनिधित्व देने से जुड़ा है”सभी वर्गों का देश के नीति निर्माण में सहभागी होने का माध्यम ही आरक्षण है , इसी लिए ऐंग्लो इंडीयन के लिए भी कुछ स्थानो को सुरक्षित किया गया है।इसी बातडॉ.अम्बेडकर ने 1918 की साउथबोरो समिति के सामने उठा, समाज के वंचित वर्ग को स्व-प्रतिनिधित्व मिले इसकी माँग की थी , इसी को 1932 में पूना पेक्ट के द्वारा पूर्ण किया गया वही देश की आज़ादी के बाद संविधान में विभिन्न अनुच्छेदों को जोड़ देश भर के दलित-पिछड़े , वंचित वर्ग को प्रतिनिधित्व के माध्यम से भारत भाव के संरक्षण का कार्य किया।एक बात ओर जानने की है ऐसा भी नहीं की अम्बेडकर ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने आरक्षण अथवा प्रतिनिधित्त्व की माँग की थी उनसे पूर्व तिलक जी एवं कई अन्य नेताओ ने भीब्रिटिश सरकार से हिंदुस्तान के पढ़े लिखे लोगों के लिए सरकारी सेवाओं में आरक्षण अथवा प्रतिनिधित्व की माँग की थी जिसे ब्रिटिश सरकार ने 1852 में भारतीयों के लिए सरकारी सेवा में कुछ पदो को आरक्षित भी किया था।वही समाज में शिक्षा का प्रचार दलित वंचित समाज के भीतर भी जाए इसको लेकर महात्मा ज्योतिबा फुले, महदेव गोविंद रानाडे आंदोलन कर रहे इसको देखते हुए भी ब्रिटिश सरकार ने सरकारी विद्यालयाओ में दलितों-पिछड़ो के लिए आरक्षण की व्यवस्था भी कीथी,वही 1902 में छत्रपति साहू जी महाराज ने सरकारी नौकरियो में आरक्षण का प्रावधान किया।दक्षिण भारत में 1921 के बाद में मुख्यतः मद्रास में आरक्षण लागू किया गया,ये आरक्षण उस वर्ग को समाज की मुख्य धारा में जोड़ने के लिए है जिसे वर्षों जन्म आधारित जाति के कारण उत्पीड़न सहना पड़ा था ये आरक्षण तीन मुख्य आधारों पर आधारित है,जिसमें जातिगत अस्पृश्यता , गन्दे व्यवसाय एवं शैक्षिक पिछड़ेपन को आधार माना गया। भारतीय हिंदू समाज व्यवस्था में जाति और उस आधार पर उत्पीड़न का एक लम्बा दौर रहा है, ये आरक्षण इसी वर्ग को न्याय दिलाने हेतु एक उपाय है।बाबा साहब कहते है “ जिस तालाब का पानी कुता , बिल्ली , जानवर एवं विदेशों से आए लोग भी पी सकते है वही इसी देश के लोगों को उसको छूंने ,पीने का अधिकार नहीं ये सरासर अमानवीयता है” व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य भेद किसी भी राष्ट्र के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता राष्ट्र निर्माण में परस्पर बंधुभाव से उनका समरस होना नितांत आवश्यक है।समाज में बंधु भाव का निर्माण होएवं व्याप्ततमाम भेदो का अंत हो समरसता भाव से समाज खड़ा हो इसी लिए पूज्ये बाबा साहब ने आरक्षण एवं प्रतिनिधित्व की बात की थी।आज की परिस्थतियो में आरक्षण एवं आरक्षण में क्रिमी लीयर को लेकर बड़ी बहस चल रही ऐसे समय में जानना ज़रूरी है की पिछले इतने वर्षों के आरक्षण से इस आरक्षित वर्ग को मिला क्या है। देश में इतने वर्षों में समाज के दलित-पिछड़े कहे जाने वाले वर्ग के जीवन स्तर में काफ़ी बदलाव आया है लेकिनआर्थिक सम्पन्नता के बावजूद क्या सामाजिक समता उनको मिली है? तो ऐसा नहीं कहा जा सकता है।
भारत की 2011कीजनसँख्या केअनुसार, भारत में अनुसूचितजाति (एससी) की जनसंख्या16.6 प्रतिशत है वही अनुसूचित जन जाति की 8.6 फीसदी है. उत्तरप्रदेश, पश्चिमबंगाल, बिहार और तमिलनाडु में देश के करीब आधे दलित रहते हैं।अगर साक्षरता की बात करें तो अनुसूचित जाति मेंसाक्षरता दर 66.1फीसदी है, जबकिअनुसूचित जनजाति में ये दर 5 9 फीसदी के करीब है।वही अगर बी .पी .एल.के आंकड़े की बात करे तो अनुसूचित जनजाति में सर्वाधिक 45.3%, वही अनुसूचित जाति में 31.5% और सरकार ने ओबीसी वर्ग के आंकड़े जारी नहीं किये ।वहींअंतरष्ट्रीय समाजसेवी संगठन एक्शन अगेंस्ट हंगर की रिपोर्ट बताती है कि भारत में कुपोषण जितनी बड़ी समस्या है, वैसा पूरे दक्षिण एशिया में और कहीं देखने को नहीं मिला है ।रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में अनुसूचित जनजाति (28%), अनुसूचितजाति (21%), पिछड़ीजाति (20%) और ग्रामीण समुदाय (21%) पर अत्यधिक कुपोषण का बहुत बड़ा बोझ है. पिछले वर्ष जारी‘ वर्ल्ड हंगर इंडेक्स ’के अनुसार दुनिया में सबसे ज्यादा गरीब तथा भुखमरी से शिकार लोग भारत में हैं , तथा इनमें से अधिकाँ दलित, पिछड़े तथा जनजाती य समाज के हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट के मुताबिक, जाति आधारित उत्पीड़न में दलितों पर अत्याचारों में लगातार बढ़ोतरी हुई है, 2017 में यह आंकड़ा 43,203 काथा, वही 2018 में बढ़कर 42793 मामले दर्ज हुए। इन दलित उत्पीड़न में सबसे ऊपर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश एवं राजस्थान है । अगर विश्वविद्यलय में दलित और पिछड़े समाज की हिस्सेदारी को देखा जाए तो वो बड़ीं चिंताजनक है जिस प्रकार उच्च शिक्षा में दलितों पिछड़ो के आँकड़े ठीक नहीं है उसी प्रकार से विश्वविद्यलयो में उनका प्रतिनिधित्व भी चौंकाने वाला है, 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों मेंअगर देखे तो एक भी दलित कुलपति नहीं है और विश्वविद्यालयों के अंदर के विभिन्न प्रशासनिक पदों पर भी दलित वर्गों का नाम मात्र ही प्रतिनिधित्व है, कुल प्रोफ़ेसर के 1125 पदों में केवल 39 अनुसूचितजाति के और 8 अनुसूचित जनजाति के प्रोफ़ेसर है वही अन्य पिछड़े वर्ग से एक प्रोफ़ेसर भीन हीं है । वही असोसिएट में देखे तो कुल 2650 पदों में 130 अनुसूचित जाति और 34 अनुसूचित जनजाति तथा पिछड़े समाज से कोई नहीं अन्य सामान्य वर्ग वही असिस्टेंट प्रोफ़ेसर में 7741 कुल पदों में 931 अनुसूचित जाति एवं 423 अनुसूचित जनजाति एवं 1113 अन्य पिछड़े समाज के लोग काम कर रहे अन्य सामान्य वर्ग के पास है। ये आँकड़े विश्विद्यालयो के विभागों के है कॉलेज में भी अमूमन ये ही आँकड़े है ,ऐसे समय में देश के न्यायलय कहते है की आरक्षण की समीक्षा करे आरक्षण में “क्रिमीलीयर” बन गई है,वही आरक्षण कोई मौलिक अधिकार नहीं है,इस प्रकार की टिप्पणिया आम है। वही न्यायलयो को लेकर अभी राष्ट्रपति रामनाथ जी कोविंद ने कहा की “देश के इतने न्यायलयो एवं सुप्रीमकोर्ट में गिने चुने ही दलित जज है”। येसच हैकी दलित वर्ग में कुछ लोगों ने तरक़्क़ी की है लेकिन क्या उनकी सामाजिक पदोन्नति भी हुई है? क्या उनका विवाह अपनी जाति के अलावा कही और हो पता है?, क्या आज भी गाँव में उनके साथ समान व्यवहार होता है? ये कुछ ऐसे प्रश्न है जिनको हमें सुलझाना होगा और फिर आरक्षण और उसकी समीक्षा एवं क्रिमीलीयर आदि के बात बेमानी है । हाँ अगर कुछ तय भी करना है तो समाज ही करेगा , क्रिमी लीयर के स्थान पर क्या “वरीयता आधारित” आरक्षण को क्या नहीं लागू कर सकते।
-डॉ.प्रवेश कुमार सहायक प्राध्यापक ,सेंटर फॉरकं पैरेटिव पॉलिटिक्स एंडपोलिटिकल थ्योरी,स्कूल ऑफइंटर नेशनल स्टडीज,जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी,नई दिल्ली
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