कविता
गौरव 'गम्भीर'
बैठा था सागर किनारे, कुछ गुमसुम कुछ गुमनाम सा
सोचा चलूँ, इन लहरों के साथ फिर दिल ने कहा, हो न कोई नुक्सान सा
ख्याल आया, कैसी ये दुनियाँ अजब निराली है
जो पग पग कही ईद, तो कही दीवाली है
खुद इन्सान ने अब, अपने हाथों से
आज किस्मत अपनी, गर्त में डाली है
हर कोई लड़ता है, जात जात बात बात पे
कोई रगड़ता है, खुद को रात रात साथ साथ पे
हर कोई शामिल है आज,
इस अन्धी दौड़ में
हर कोई काबिल है आज,
आगे इस होड़ में
लूट पाट मचा रखी है,
देखो क्या दुनियाँ के लोगो ने
किसी को परवाह नहीं है अब,
खुद के अपने रोगों में
रोग भी क्या, जो खुद वो नहीं जानते
अपने अंदर के कालेपन को,
खुद वो नहीं पहचानते
रह गया इसी उधेड़बुन में,
सोचा अब क्या होगा मेरा
लगा है यहाँ तो अब, जमातों का मेला
उठ उठ गिर गिर तरल तरंग,
अब मुझसे कहता है
चला आ आग़ोश में मेरे,
दूर क्यूँ मुझसे रहता है
देख मेरे ख़ुदा, कैसी ये दुनियाँ तूने बनाया है
रह गयी अब तो यहाँ, सिर्फ कलयुग की छाया है
कैसा बनाया इन्सान, कैसी इसकी काया है
बता अब तू मुझे, कैसी ये तेरी माया है
सुन कर ध्वनि इन लहरों की,
अब मन प्रफुल्लित हो उठा
कुछ बदलने की चाहत, अब खुद में ले जुटा
जो बैठा था, कुछ गुमसुम कुछ गुमनाम सा
फिर दिल ने कहा चल, अब होगा नहीं कोई नुकसान सा
## रचयिता__ गौरव 'गम्भीर'
गोरखपूर 8789886702
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